मध्यकालीन बयाना के यदुवंशी राजपूतों एवं मुस्लिम आक्रांताओं के मध्य सत्ता संघर्ष का एक ऐतिहासिक शोध —-
परिचय बयाना नगर—
इस पौराणिक बयाना नगर को इस देश का दूसरा कुरुक्षेत्र कह सकते हैं। जहाँ आरम्भ से ही खूनी खेलों की आँधियाँ चलती रही , जिसके कारण यहाँ की ज्यादातर भूमि हड्डियों के ढेरों को अपने गर्भ में समेटे हुए है। भागवत और विष्णुपुराणों के अनुसार यह क्षेत्र पौराणिक काल में राक्षसराज वाणासुर की राजधानी के रूप में ख्याति प्राप्त रहा। उस समय इसका नाम शोणितपुर था।
इस बाणासुर की लड़की ऊषा का विवाह श्रीकृष्ण के पुत्र अनिरूद्ध से हुआ। उसी की सहेली बाणासुर के मंत्री कुम्भाड की लड़की चित्रलेखा ने यहाँ पर ऊषा मंदिर बनवाया जिसका अनेकों बार हुआ परिवर्तित रूप आज प्राचीन बयाना के अन्दर स्थित है। सूर्य उपासना हेतु बनाई मीनार ( ऊषामीनार) भी इसी देवालय के निकट है जिसे इतिहासी पृष्ठों में मुस्लिम निर्माण घोषित किया हुआ है। श्रीकृष्ण द्वारा बाणासुर को यहाँ से खदेड़ दिये जाने के बाद इस नगर को श्रीपथ , श्रीप्रस्थ तथा श्रीपुर जैसे पावन नामों से सम्बोधित किया गया। कुछ ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं जिनमें इस नगर को शान्तिपुरा के नाम से पुकारा गया।
बयाना के गुर्जर प्रतिहार राजपूत शासक –—
ई.550 के बाद इस क्षेत्र में गुर्जर शक्तिशाली होकर सत्ता में आये। व्हेनसांग ने वर्तमान भरतूपुर जिले का क्षेत्र ‘गुर्जरात्रा’ राज्य में शामिल किया है। उस समय इस क्षेत्र की राजधानी बजाना था जो बाद में बयाना नाम से पुकारी जाने लगी। गुर्जरों के बाद प्रतिहारों का अभ्युदय हुआ जो गुर्जरात्रा क्षेत्र पर शासन करने के कारण ‘गुर्जर प्रतिहार’ कहलाये। प्रतिहार राजा भोज प्रथम तथा महीपाल द्वितीय ने इस क्षेत्र पर भी अपनी सत्ता स्थापित की। ग्वालिअर से प्राप्त अभिलेख में प्रतिहार राजा नागभट्ट द्वितीय को मत्स्य देश का भी राजा बताया गया है।
बयाना पर चौहानों का शासन –—–
नौवीं शती में कन्नौज के अधीन सामन्तों के रूप में चौहानों ने भी इस क्षेत्र पर शासन किया किन्तु सत्ता के वास्तविक स्वामी प्रतिहार ही बने रहे। अजमेर के चौहान शासक अजयराज द्वितीय (ई 1110 से ई. 1135) ने इस क्षेत्र में भी अपनी सत्ता का विस्तार किया और यह क्षेत्र चौहानों के अधीन आ गया। उसने बयाना (श्री मार्ग) तथा दुर्दा के चाछिग, सिंधल तथा यशोराज को मार कर इस क्षेत्र पर अपनी सत्ता स्थापित की। बयाना, मथुरा तथा अन्य स्थानों से चौहान शासक अजयराजद्वितीय की रजत तथा ताम्र मुद्रायें प्राप्त हुई हैं।
ब्रज क्षेत्र बयाना में यादवों की शासन सत्ता —-
ई. 1018 में जब महमूद गजनी ने भारत पर आक्रमण किया तब मथुरा के निकट महाबन में यदुवंशी कुलचंद शासन करता था। महमूद गजनी बरण (वर्तमान में उत्तर प्रदेश का बुलन्द शहर जिला मुख्यालय) से चलकर महाबन पहुंचा। कुलचन्द के अधीन कई दुर्ग थे तथा आसपास के अनेक राजा उसके अधीन थे। जब कुलचन्द ने सुना कि महमूद नामक म्लेच्छ अपनी विशाल सेना लेकर आ रहा है तो वह घने जंगलों के बीच स्थित अपने दुर्ग में चला गया और वहां उसने महमूद गजनवी का सामना किया। हिन्दू सैनिक म्लेच्छों के क्रूर कृत्यों से थर्रा गये। हजारों हिन्दू सैनिक मौत के घाट उतार दिये गये और सैकड़ों ने जीवित ही यमुना में कूद कर अपने धर्म की रक्षा की। कुलचन्द ने कोई उपाय शेष न जानकर अपनी रानी की हत्या कर दी और स्वयं भी उसी के साथ यमपुर चला गया। इस युद्ध में 5000 हिन्दू वीर खेत रहे। महमूद को बहुत बड़ा खजाना हाथ लगा जिसे लेकर वह मथुरा चला गया। इसी यदुवंश का राजा जयपाल ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में यादवों की गद्दी पर बैठा। उसका उत्तराधिकारी विजयपाल हुआ। इसी विजयपाल का उल्लेख बयाना के ई. 1044 के शिलालेख में विजय नाम से हुआ है। विजय पाल का उत्तराधिकारी तहनपाल था जिसने बयाना से 22 किलोमीटर तहानगढ़ दुर्ग का निमार्ण करवाया। उसके बाद धर्मपाल, कुंवरपाल तथा अजयपाल राजा हुए। अजयपाल के बाद हरिपाल राजा हुआ जिसने ई. 1170 में महाबन की स्थापना की। उसका लडका सहनपाल यादवों का राजा हुआ। अघापुर से ईस्वी 1192 का एक लेख एक मूर्ति के नीचे से मिला है। अघापुर पूर्व भरतपुर रियासत का हिस्सा था। इस शिलालेख में राजा सहनपाल देव का उल्लेख है। दर बाद अनघपाल राजा हुआ। मध्य कालीन भारतीय इतिहास में बयाना का महत्वपूर्ण स्थान है।अनघपाल के बाद कुंवरपाल राजा हुआ।
मुहम्मद गौरी एवं यदुवंशी शासक कुंवरपाल का युद्ध तथा यादवों की सत्ता का अन्त —-
ई. 1192 में मोहम्मद गोरी ने तराइन के मैदान में चौहानों की शक्ति को काफी कमजोर कर दिया। इस विजय के बाद गौरी अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को भारत में छोड़कर गजनी लौट गया। ई. 1195 में मुइज्जुद्दीन पुनः भारत आया। उसने बयाना पर आक्रमण किया। बयाना का यदुवंशी राजा कुंवर पाल अपनी राजधानी बयाना खाली करके तहनगढ़ के दुर्ग में जाकर बंद हो गया कि अन्त में उसे आत्म समर्पण करना पड़ा। उसके बहुत सारे क्षेत्र बहाउद्दीन तुरगिल के अधीन आ गये। कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के बाद बयाना पर से तुर्कों का आधिपत्य कमजोर हो गया तथा यादवो ने पकड़ बनानी शुरू कर दी किंतु शीघ्र ही इल्तुतमिश ने फिर से उन्हें परास्त किया तथा बयाना और तहनगढ़ पर अधिकार कर लिया। इल्तुतमिश के उत्तराधिकारी कमजोर निकले। इसका लाभ उठाकर मेवात के कोह पाया लोगों ने अपनी सत्ता जमानी आरम्भ कर दी। मेव लोग मथुरा ,गुड़गांव, अलवर तथा भरतपुर क्षेत्र में रहते थे तथा दिल्ली सलतनत के लिये विद्रोहियों के रूप में कुख्यात थे। मेवों के राजा खानजादा कहलाते थे। खानजादा वंश की स्थापना जादौ वंशी बहादुर नाहर ने की थी। बयाना और तहनगढ़ के यदुवंशी वीर भी अपना राज-पाट खोकर मेवात में जा बसे। पृथ्वीराज चौहान के वशंज भी शासन और सत्ता से च्युत होकर इस क्षेत्र में रहने लगे ये लोग राठ कहलाते थे। कामां, तिजारा तथा सरहट्टा क्षेत्र में जादोन भाटियों ने जमावाड़ा किया इस प्रकार मेव, खानजादा, राठ, यादव तथा भाटी लोग सम्मिलित रूप से मेवाती कहलाने लगे ।ये सारे लोग दिल्ली सल्तनत के प्रबल शत्रु थे। ये लोग सिवालिक, हरियाणा तथा बयाना क्षेत्र से दिल्ली सल्तनत के विरुद्ध गोरिल्ला युद्ध किया करते थे। जब दिल्ली सल्तनत पर बलबन काबिज हुआ तो उसने मेवातियों को बुरी तरह से कुचला। खिलजियों के काल में भी यह क्षेत्र दिल्ली सल्तनत के अधीन रहा। बयाना पर मुस्लिम शासक आ जमे ।
अलाउद्दीन खिलजी का बयाना पर आधिपत्य
अल्लाऊद्दीन खिलजी बयाना के काजी मुगीसुद्दीन से धार्मिक मामलों पर सलाह-मशवरा किया करता था। तुगलकों के शासन काल में मेवाती लोग और अधिक बड़ी समस्या बनकर दिल्ली सल्तनत के सामने ख हो गये। ई. 1397 से 1416 के बीच शम्सखां बयाना पर शासन करता था। जब तैमूर लंग नृशंस हत्याकाण्ड और आगजनी के बाद दिल्ली से लौट गया तो मल्लू इकबाल खान ने दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। वहां से मल्लू बयाना पर चढ़ आया तथा नूह और टप्पल के बीच उसने बयाना के शासक शम्स खां को परास्त किया। मल्लू बयाना पर अधिकार किये बिना काठेड की तरफ बढ़ गया।
ई. 1416 से 17 के बीच खिज्रखां ने बयाना पर आक्रमण करने के लिये वजीर ताजुल मुल्क तुहफा को विशाल सेना देकर भेजा। शम्स खां औहादी के भाई हरोमुल मुल्क ने तुहफा सामने समर्पण कर दिया। अतः बयाना पर आक्रमण नहीं किया गया। ई. 1421 में दिल्ली तख्त पर मुबारक खां बैठा। उसने शम्सुल मुल्क सिकन्दर तुहफा को बयाना का शासक बनाया ।मुबारक खां के पूरे शासन काल के दौरान मेवाती विद्रोही बने रहे। मुबारक खां ने उन्हें बुरी तरह दण्डित किया। सैकड़ों लोग तलवार के घाट उतार दिये गये और उनके कई गांव जला दिये गये किंतु कुछ समय बाद ही मेवाती जलाल खां तथा अब्दुल कादर के नेतृत्व में संगठित हो गये। जलाल खां को जल्लू तथा अब्दुल कादर को कद्दू भी कहा जाता है। ये दोनों नाहर बहादुर के पोते थे। ईस्वी 1423 में बयाना के शासक अमीरखां औहादी ने मुबारक शाह से युद्ध किया। अमीरखां को समर्पण करना पड़ा किन्तु उसका राज्य बना रहा। उसके उत्तराधिकारी मुहम्मद खां ने भी दिल्ली सल्तनत से विद्रोह किया। उसे पकड़ कर दिल्ली ले जाया गया किंतु वह वहां से बच निकला और पुनः बयाना के दुर्ग पर अधिकार करने में सफल हो यगा। जब मुबारक उसके पीछे आया तो मुहम्मद खां भागकर इब्राहीम शर्की से जा मिला। शर्की उस समय कालपी पर आक्रमण करने जा रहा था, किंतु मुहम्मद खां के अनुरोध पर वह अब्दुल शाह से लड़ने को तैयार हो गया। 24 मई 1428 को गंभीरी नदी के तट पर दोनों पक्षों में भयानक युद्ध हुआ किंतु मुहम्मद खां तथा इब्राहीम शर्की को मैदान छोड़कर भागना पड़ा। मुबारक ने बयाना पर अधिकार करके महमूद हुसैन को वहां का प्रशासक नियुक्त किया। इब्राहीम शर्की का साथ देने के लिए कद्दू को मार दिया गया, जल्लू कुछ दिन तो भागता फिरा किंतु बाद में उसने मुबारक शाह के वजीर के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और कर देना स्वीकार कर लिया।
ई. 1432 में मुबारक शाह मेवात आया और वहीं पर शुक्रवार के दिन प्रार्थना करने जाते समय उसकी हत्या हो गई। ई. 1466 में जोनपुर का शासक हुसैन शाह शर्की मेवात पर चढ़ आया। उसने बयाना के शासक अहमद खां जल्वानी को अधीनता स्वीकार करने पर विवश कर दिया। बयाना उन दिनों दिल्ली के बहलोल शासक बहलोल लोदी के अधीन था। हुसैन शाह शर्की ने दिल्ली पर भी आक्रमण किया किंतु दोनों पक्षों में संधि हो गई। बहलोल लोदी के बाद सिकन्दर लोदी दिल्ली की गद्दी पर बैठा। उसका झगड़ा बयाना के गवर्नर सुल्तान शर्फ से हो गया। सुल्तान शर्फ, अहमद खां जलवानी का लड़का था तथा अपने पिता की मृत्यु के बाद बयाना का शासक बना था। अहमद खां जलवानी बहलोल लोदी के नाम का खुतबा पढ़ा करता था किंतु सुल्तान शर्फ ने सिकन्दर लोदी के नाम का खुतबा पढ़ने से इन्कार कर दिया।
सिकन्दर लोदी का बयाना पर अधिकार
इस कारण ई. 1492 में सिकन्दर लोदी ने बयाना पर आक्रमण कर दिया। शर्फ ग्वालिअर के राजा की शरण में भाग गया। खाने-खानान फार्मूली को बयाना का शासक नियुक्त किया गया। फार्मूली की मृत्यु के बाद इमाद तथा सुलेमान को बयाना भेजा गया किंतु वे शासन चलाने में असफल रहे। अतः खवास खां को बयाना का गवर्नर बनाया गया। लगभग 10 वर्ष बाद सिकन्दर लोदी ने ग्वालिअर तथा धौलपुर पर आक्रमण किया। उन दिनों धौलपुर ग्वालिअर के राजा विनायक देव के अधीन एक ठिकाना था। इस आक्रमण के लिए सिकन्दर ने अपने कई प्रसिद्ध सेनापति भेजे जिनमें खवास खां भी शामिल था। जब सिकन्दर के सेनापति धौलपुर पर अधिकार नहीं कर सके तब फरवरी 1504 में सिकन्दर स्वयं धौलपुर आया तथा धौलपुर पर अधिकार करके बुरी तरह लूट-पाट रक्त-पात, आग और विनाश का दृश्य रचकर आगरा लौट गया। मार्ग में वह कुछ दिनों के लिए बयाना भी रुका।
इब्राहिम लोदी का बयाना पर आधिपत्य
ई. 1517 में इब्राहीम लोदी दिल्ली की गद्दी पर बैठा। उसने मेवाड़ के राणा सांगा पर दो आक्रमण किये। पहले आक्रमण में राणा सांगा ने इब्राहीम को धौलपुर के निकट परास्त किया तथा दूसरे आक्रमण में सांगा ने इब्राहीम को पीटकर बयाना तक धकेल दिया। ई. 1526 में बाबर ने इब्राहीम लोदी पर आक्रमण किया और पानीपत के मैदान में उसे हरा दिया। इस बीच सांगा ने लोदी के अनेक क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया तथा हसन खां मेवाती को भी अपने यहां शरण।दी। बाबर ने बयाना पर अधिकार करने के लिये महदी ख्वाजा को भेजा। ठीक उसी समय राणा सांगा भी बयाना पहुंचा और उसने बयाना के दुर्ग को घेर लिया। उस समय निजाम खां बयाना का शासक था। सांगा ने निजाम खां से बयाना का दुर्ग छीन लिया और बाबर देखता ही गया। बाबर समझ गया कि यदि उसे हिन्दुस्तान में रहना है तो सांगा से निबटना पड़ेगा। अतः बाबर अपनी सारी शक्ति इकठ्ठठी करके फतहपुर सीकरी में आ जमा। इधर सांगा बयाना से निकलकर बाबर की अपेक्षा के विरुद्ध टेढ़े-मेढ़े रास्ते से होता हुआ खानवा गांव के पास आकर जम गया। इस प्रकार दोनों सेनाओं के बीच कुल छः किलोमीटर की दूरी रह गई। सांगा ने राजस्थान के समस्त हिन्दू नरेशों को इस युद्ध में आने का निमन्त्रण दिया। जिसे पाकर कई हिन्दू राजा, सेनापति एवम् सरदार खानवा पहुंचे। सांगा का विशाल बल देखकर बाबर का सैन्य दल थर्रा गया और युद्ध की इच्छा त्यागकर पुनः अपने देश समरकन्द जाने की मांगा करने लगा।
बयाना के पास खानबा का युद्ध
ई. 1192 में पृथ्वीराज चौहान तराइन के मैदान में मुहम्मद गौरी से हार गया था जिसने हिन्दुस्तान से हिन्दू नरेशों का एक छत्र राज्य खण्डित हो गया था। ई. 1527 में खानवा के मैदान में हिन्दू नरेशों का यह जमावड़ा अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने का पहला औ अन्तिम सबसे बड़ा प्रयास था किन्तु हिन्दुओं का सौभाग्य सूरज उनसे रूठा हुआ था। अतः जन बल, धन बल, बुद्धि बल, सैन्य बल तथा मनोबल में म्लेच्छों से कई गुणा अधिक होने पर भी हिन्दुआनी तलवार टूटकर पतन, गुलामी, निराशा और पराजय के गर्त में जा गिरी। जिस प्रकार पृथ्वीराज चौहान की पराजय के 335 साल बाद तक हिन्दू नरेश पराजय और पराधीनता की टीस झेलते रहे, ठीक उसी प्रकार राणा सांगा की पराजय के बाद पूरे 330 साल तक हिन्दुस्तान इस्लाम के अधीन हो गया। यह राज्य ई. 1857 में इंगलैण्ड की महारानी द्वारा भारत पर अपना राज्य घोषित करने के साथ ही समाप्त हो सका । जब बाबर के अन्तिम वंशज बहादुर शाह जफर (द्वितीय )को अंग्रेजों ने गिरफ्तार करके बर्मा भेज दिया और वहीं कष्टों तथा अभावों के बीच उसकी अपमान जनक मृत्यु हो गई। यद्यपि हुमायूं की मृत्यु के बाद ई. 1556 में हेमचन्द्र विक्रमादत्य ने एक बार फिर भारत से इस्लामी राज्य को पौंछने का प्रयास किया किन्तु वह क्षणिक चमक देकर शून्य में विलीन हो गया। इस प्रकार ई. 1192, 1527 तथा ई. 1556 में हिन्दुओं का जो सौभाग्य सूरज पराजय के पंक में डूबा वह फिर कभी उदित नहीं हुआ। ई. 1947 में जब अंग्रेजी राज्य भारत से गया तब राज्य और रजवाड़े भी समाप्त हो गये, हिन्दतानी चमक लौट कर फिर कभी नहीं आई।
खानवा गांव अब भरतपुर जिले की रूपबास तहसील में स्थित है जो 500 साल पहले इतिहास की किताब से फट गये पन्ने की भांति आजाद भारत के पटवारियों की गिरदावरी और जमाबन्दी में एक साधारण गांव की तरह दर्ज है। सांगा और बाबर की सेनाओं के बीच 16 मार्च 1527 को प्रातः साढ़े नौ बजे युद्ध आरम्भ हुआ। युद्ध शुरू होते ही बाबर की तोपों ने आग उगलनी शुरू कर दी। हजारों हिन्दू वीर युद्ध क्षेत्र में मारे गये तथा शेष घायल होकर किसी तरह अपनी जान बचाकर भागे। सांगा भी बुरी तरह घायल होकर मैदान छोड़कर चला गया। इस विजय के बाद बाबर बयाना आया और अपना अधिकार स्थापित किया। ई. 1530 में बाबर की मृत्यु हो गई तथा उसका पुत्र हुमायूँ हिन्दुस्थान का शासक हुआ। ई. 1540 में अफगान सरदार शेरशाह सूरी ने हुमायूँ को भारत से भगाकर मुगल साम्राज्य पर कब्जा कर लिया। इससे भरतपुर, धौलपुर तथा बयाना के क्षेत्र भी सूर साम्राज्य में सम्मिलित हो गये।
शेरशाह सूरी का बयाना पर आधिकार
शेरशाह सूरी के शासन काल में बंगाल से शेख अलाई नामक धार्मिक उपदेशक बयाना आकर रहने लगा। उसकी गतिविधियां काफी संदिग्ध थीं इस कारण उसे बयाना से निर्वासित करके मक्का जाने का आदेश दिया गया। शेख अलाई मक्का के लिये रवाना हो गया किन्तु मार्ग से ही वापिस बयाना लौट आया और पुनः सैन्य गतिविधियों में शामिल हो गया। इस पर उसे पुनः न्यायालय में बुलाया गया और इस्लाम शाह द्वारा निर्वासित करके दक्खिन में भेज दिया गया। किन्तु वहां भी उसने अपने हजारों अनुयायी तैयार कर लिये जो उसे अपना गुरु समझते थे। एक बार फिर वह बयाना आया। इस पर इस्लाम शाह ने उसके धार्मिक उपदेशों के बारे में दूसरे विद्वानों से राय मांगी। धार्मिक विद्वान अलाई के सिद्धान्तों का विरोध नहीं कर सके किंतु बादशाह के डर से उसकी प्रंशसा भी नहीं कर सके। इस प्रकार अलाई इस्लाम शाह के लिये सिरदर्द बन गया। इस पर ई. 1548 में इस्लामशाह ने शेख अलाई को पंजाब बुलवाया जहां उन दिनों इस्लाम शाह का शिविर लगा हुआ था। इस्लाम शाह ने शेख अलाई से कहा कि वह अपना गोरख धन्धा छोड़ दे किन्तु शेख ने बादशाह का हुक्म मानने से इन्कार कर दिया। इस्लाम शाह ने अपने आदमियों से कहा कि मक्कार शेख अलाई को कोड़े लगाये जायें। तीसरे कोड़े में ही शेख ने अपनी पराजय स्वीकार कर ली।
बयाना के मुस्लिम गवर्नर
इस्लाम शाह ने अपने बड़े भाई आदिल खां को दिल्ली का बादशाह बनने के लिये आमन्त्रित किया। आदिल खां अपने भाई इस्लाम शाह (इस्लाम शाह का असली नाम जलाल खां था और वह शेर शाह की मृत्यु के बाद इस्लाम शाह के नाम से दिल्ली/आगरा के तख्त पर बैठा था) की मक्कारी को जानता था। अतः उसने बादशाह बनने से मना कर दिया। इस पर इस्लाम शाह ने उसे बयाना का गवर्नर नियुक्त कर दिया। एक दिन इस्लामशाह ने बयाना में आदिल खां को गिरफ्तार करने की कोशिश की। इस पर आदिल खां बयाना छोड़कर पटना भाग गया। इस्लाम शाह ने मियां बाहवा लोहानी को बयाना का गवर्नर बना दिया। ई. 1555 में हुमायूँ फिर से भारत लौटा तथा उसने अपने खोये हुए साम्राज्य को फिर से प्राप्त कर लिया।
अकबर के शासन में बयाना –—
ई. 1556 में उसकी अचानक मृत्यु हो गई तथा उसका पुत्र अकबर, बैराम खाँ की सहायता से मुगलों के तख्त पर बैठा। अकबर के शासन काल में बयाना का सैन्य महत्व बना रहा। उसके शासन काल में बयाना, बाड़ी टोडा-भीम, खानुआ तथा धौलपुर नामक महाल आगरा सूबे में स्थित आगरा सरकार के अधीन आते थे। जबकि गोपाल गढ़, नगर, पहाड़ी तथा कामां, जयपुर रियासत के अधीन थे। रूपबास के आस-पास उन दिनों विशाल जंगल खड़ा था। अकबर वहां अक्सर शिकार खेलने आया करता था। आज भी चन्नाह के आस-पास विशाल चबूतरे एवं मचान देखने को मिल जायेंगे, जिन पर बैठकर अकबर निशाना साधा करता था। इस क्षेत्र की शासन व्यवस्था औरंगजेब के दिल्ली के तख्त पर बैठने तक उसी प्रकार चलती रही जिस प्रकार अकबर द्वारा स्थापित की गई थी।
शाहजहां के शासनकाल में ब्रज बयाना क्षेत्र —
इस बार शाहजहां ने जाटों को कुचलने के लिये आम्बेर नरेश जयसिंह को नियुक्त किया।जयसिंह ने सफलता-पूर्वक जाटों का दमन किया और उनसे राजस्व वसूल किया। जयसिंह ने जाटों, मेवों तथा गूजरों का बड़ी संख्या में सफाया किया तथा अपने विश्वस्त राजपूत परिवार इस क्षेत्र में बसाये।
शाहजहां के शासन काल में जाटों को घोड़े की सवारी करने, बन्दूक रखने तथा दुर्ग बनाने पर प्रतिबन्ध था। ई. 1636 में शाहजहां ने बजमंडल के जाटों को कुचलने के लिये मुर्शीद कुली खां तुर्कमान को कामा, पहाड़ी, मथुरा और महाबन परगनों का फौजदार नियुक्त किया। उसने जाटों के साथ बड़ी नीचता का व्यवहार किया जिसमें जाट मुर्शीद कुली खां की जान के शत्रु हो गये। हुआ यूं कि कृष्ण जन्माष्टमी को मथुरा के पास यमुना के पार गोवर्धन में हिन्दुओं का बड़ा भारी मेला लगता था। मुर्शीद कुली खां भी हिन्दुओं का छद्म वेश धारण करके सिर पर तिलक लगाकर और घोती बांध कर उस मेले में जा पहुंचा। उसके पीछे-पीछे उसके सिपाही चलने लगे। उस मेले में जितनी सुन्दर हिन्दू स्त्रियां थीं उन्हें छाट-छांट कर उसने अपने सिपाहियों के हवाले कर दिया। उसके सिपाही उन स्त्रियों को पकड़ कर नाव में बैठा कर ले गये। उन स्त्रियों का क्या हुआ, यह किसी को पता नहीं लग सका। उस समय तो मुर्शीद कुली खां से कोई कुछ नहीं कह सका किंतु कुछ दिन बाद ई. 1638 में जाटवाड़ नामक स्थान पर (सम्भल के निकट) जाटों ने उसकी हत्या कर दी।
गोकुला जाट का मुगल सत्ता के खिलाफ संघर्ष —
ई. 1669 के आसपास जाट गोकुला के नेतृत्व में संगठित हुए। गोकुला तिलपत गांव का जमींदार था। औरंगजेब के अत्याचारों से तंग होकर वह महावन आ गया। उसने जाटों, मेवों, मीणों, अहीरों, गूजरों, नरूकों तथा पवारों को अपनी ओर मिला लिया तथा उन्हें इस बात के लिये उकसाया कि वे मुगलों को कर न दें। मुगल सेनापति अब्दुल नवी खां ने गोकुला पर आक्रमण किया। उस समय गोकुला सहोर गांव में था। जाटों ने अब्दुल नवी खां को मार डाला तथा मुगल सेना को लूट लिया। इसके बाद गोकुला ने सादाबाद गांव को जला दिया और उस क्षेत्र में भारी लूट-पाट की। अन्त में औरंगजेब स्वयं मोर्चे पर आया और जाटों को घेर लिया। जाटों की स्त्रियों ने जौहर किया तथा जाटवीर मुगलों पर टूट पड़े। हजारों हिन्दू मारे गये तथा गोकुला को हथकड़ियों में जकड़ कर औरंगजेब के सामने ले जाया गया। औरंगजेब ने उससे कहा कि वह इस्लाम स्वीकार कर ले। गोकुला ने इस्लाम स्वीकार करने से मना कर दिया। इस पर औरंगजेब ने आगरा की कोतवाली के सामने गोकुला का एक-एक अंग कटवाकर फिंकवा दिया। पराजय, पीड़ा और अपमान का विष पीकर तिल तिल कटकर मरता हुआ गोकुला विमल कीर्ति के अमल-धवल अमृत पथ पर चला गया। इस्लाम स्वीकार करने से इन्कार कर देने के कारण गोकुला को औरंगजेब के हाथों जिस प्रकार की दर्दनाक और अपमान जनक मृत्यु प्राप्त हुई थी वैसी ही दर्दनाक और अपमान जनक मृत्यु औरंगजेब ने और भी कई लोगों को दी थी।
औरंगजेब की क्रूरता, कठोरता और शुष्कता ने इस क्षेत्र के हिन्दुओं को मुगल सत्ता के बिल्कुल खिलाफ कर दिया। सत्रहवीं शताब्दी आते-आते आगरा, मथुरा, कोयल (अलीगढ़), मेवात की पहाडियां तथा आमेर राज्य की सीमाओं से लेकर उत्तर में दिल्ली से 20 मील दूर मेरठ, होडल, पलवल नया फरीदाबाद से लेकर दक्षिण में चम्बल नदी के पार गोहद तक जाट जाति का खूब प्रसार हो गया। इस कारण यह विशाल क्षेत्र जटवाड़ा के नाम से विख्यात होने लगा। ये जाट
मुस्लिम सत्ता के लिये मेवातियों से भी अधिक बड़ा सिरदर्द साबित होने लगे।
सन्दर्भ —–
1-गज़ेटियर ऑफ करौली स्टेट -पेरी -पौलेट ,1874ई0
2-करौली का इतिहास -लेखक महावीर प्रसाद शर्मा
3-करौली पोथी जगा स्वर्गीय कुलभान सिंह जी अकोलपुरा
4-राजपूताने का इतिहास -लेखक जगदीश सिंह गहलोत
5-राजपुताना का यदुवंशी राज्य करौली -लेखक ठाकुर तेजभान सिंह यदुवंशी
6-करौली राज्य का इतिहास -लेखक दामोदर लाल गर्ग
7-यदुवंश का इतिहास -लेखक महावीर सिंह यदुवंशी
8-अध्यात्मक ,पुरातत्व एवं प्रकृति की रंगोली करौली -जिला करौली
9-करौली जिले का सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-लेखक डा0 मोहन लाल गुप्ता
10-वीर-विनोद -लेखक स्यामलदास
11-गज़ेटियर ऑफ ईस्टर्न राजपुताना (भरतपुर ,धौलपुर एवं
करौली )स्टेट्स -ड्रेक ब्रोचमन एच0 ई0 ,190
12-सल्तनत काल में हिन्दू-प्रतिरोध -लेखक अशोक कुमार सिंह
13-राजस्थान के प्रमुख दुर्ग -लेखक रतन लाल मिश्र
14-यदुवंश -गंगा सिंह
15-राजस्थान के प्रमुख दुर्ग-डा0 राघवेंद्र सिंह मनोहर
16-तिमनगढ़-दुर्ग ,कला एवं सांस्कृतिक अध्ययन-रामजी लाल कोली
17-भारत के दुर्ग-पंडित छोटे लाल शर्मा
18-राजस्थान के प्राचीन दुर्ग-डा0 मोहन लाल गुप्ता
19-बयाना ऐतिहासिक सर्वेक्षण -दामोदर लाल गर्ग
20-ऐसीइन्ट सिटीज एन्ड टाउन इन राजस्थान-के0 .सी0 जैन
21-बयाना-ऐ कांसेप्ट ऑफ हिस्टोरिकल आर्कियोलॉजी -डा0 राजीव बरगोती
22-प्रोटेक्टेड मोनुमेंट्स इन राजस्थान-चंद्रमणि सिंह
23-आर्कियोलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया रिपोर्ट भाग ,20.,पृष्ठ न054-60–कनिंघम
24-रिपोर्ट आफ ए टूर इन ईस्टर्न राजपुताना ,1883-83 ,पृष्ठ 60-87.–कनिंघम
25-राजस्थान डिस्ट्रिक्ट गैज़ेटर्स -भरतपुर ,पृष्ठ,. 475-477.
26–राजस्थान का जैन साहित्य 1977
27-जैसवाल जैन ,एक युग ,एक प्रतीक
28-,राजस्थान थ्रू दी एज -दशरथ शर्मा
29-हिस्ट्री ऑफ जैनिज़्म -कैलाश चन्द जैन ।
30-ताहनगढ़ फोर्ट :एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण -डा0 विनोदकुमार सिंह एवं मानवेन्द्र सिंह
31-तवारीख -ए -करौली -मुंशी अली बेग
32-करौली ख्यात एवं पोथी अप्रकाशित ।
33-नियमतुल्ला कृत तवारीखे अफगान ।
34-बी0 एस0 भार्गव कृत राजस्थान का इतिहास ,पृष्ठ ,270 ।
35-मुन्शी ज्वालाप्रसाद कृत बकाए राजपुताना ।
36-मां के साथ ( काव्य संग्रह )लेखक पवित्र कुमार शर्मा ।
37- ब्रज विभव ,लेखक गोपाल प्रसाद व्यास ,1987 ।
लेखक–– डॉ. धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव-लाढोता, सासनी
जिला-हाथरस ,उत्तरप्रदेश
प्राचार्य,राजकीय कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय ,सवाईमाधोपुर ,राजस्थान ,322001
